मैं तुझ पे मर तो जाता
पर क्या करूँ मेरी जां
हालात ऐसे ना हैं
कि तुझपे मर सकूं मैं
आज के दौर के हिंदोस्तां को देखकर भगत सिंह अपनी आज़ादी की दुल्हन से क्या कहते, इसे पियूष मिश्रा ने कुछ इस तरह से लफ़्ज़ों में पिरोया है। पियूष मिश्रा, वही जिन्हें आपने ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ में खुद को कोड़े लगाते देखा होगा। या शायद आपको ‘गुलाल’ का वह पगला याद हो।
पियूष न सिर्फ़ एक बेहतरीन अदाकार हैं, एक उम्दा गायक हैं, बल्कि एक ऐसे कवि भी हैं जो मौजूदा हालात को इस शिद्दत से कागज़ पर चस्पां कर देते हैं कि पढ़ने वाला दो लाइन पढ़कर उन्हें गुने, तब जाकर गाड़ी आगे बढ़े। इनकी नज़्मों की किताब ‘कुछ इश्क किया कुछ काम किया’ हाल ही में हाथ लगी। इस किताब को पूरा पढ़ने के बाद सब कुछ पहले जैसा नहीं रह जाता।
प्यार में पड़े एक पागल आशिक से लेकर पीयूष ने ज़्यादती का शिकार हुई एक नन्हीं बच्ची तक, सबको अल्फ़ाज़ बाँटे हैं। एक बच्ची के दर्द को उन्होंने दो कविताओं में बयान किया है और लिखा है,
जब शाम ये गहरी आती है
मैं चौंक–चौंक–सी जाती हूँ
फिर सहम–सिकुड़ के
सिहर–सिहर के
टाँगों को यूँ आपस में ही
जोड़–जाड़ के जकड़–जकड़ के
बैठी–सी रह जाती हूँ…
क्यों आते हो अंकल
मुझको डर लगता है…
प्यार और समकालीन घटनाओं को एक दूसरे-से तौलते हुए उन्होंने कुछ पंक्तियां लिखी हैं जो हाल-फ़िलहाल में काफ़ी पसंद की गई हैं। इनमें रिस्की इश्क की वकालत भी की गई है और गोधरा की गलियाँ रंगने की मुखालफ़त भी।
वो काम भला क्या काम हुआ
जो बिन लादेन को भा जाए
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो चबा… मुशर्रफ़… खा जाए…
वो काम भला क्या काम हुआ
जिसमें संसद की रंगरलियाँ
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो रंगे गोधरा की गलियाँ
पियूष की लिखावट की एक और खासियत है। कविताओं में छलकता उनका रियलिज़म। रचनात्मक उड़ान भरते हुए भी वह असलियत की ज़मीं को थामे रहते हैं। अब यही लाइनें ले लीजिए, जो आपने खुद भी अपने दोस्तों को मज़े लेकर सुनाई होंगी…
खुदी को क बुलंद इतना
कि तू हिमालय पर जा पहुँचे
और खुदा खुद तुझसे पूछे
अबे लेखत! उतरेगा कैसे??
मौजूदा दौर में कई बहुत प्रतिभाशाली कवि हैं। लेकिन, बात पीयूष मिश्रा पर क्यों आकर अटकी? बहुत वाजिब सवाल है। दरअसल, पीयूष को अगर कोई उनकी लेखनी के लिए नहीं जानता, तो उनकी अदाकारी के लिए ज़रूर जानता है। पिछले कुछ सालों में पीयूष ने कई ऐसे किरदार निभाए हैं जो लीक से बिल्कुल हटकर उनकी पहचान बनाते हैं। पहले बतौर एक ऐक्टर पीयूष को देखने के बाद अगर आप उनकी कविताएँ पढ़ेंगे, तो वह आप पर और असर डालेंगी।
तमाम लोकप्रियता के बावजूद जब वह खुद से पूछते हैं कि ‘तुम्हारी औकात क्या है पीयूष मिश्रा…’ तो इज़्ज़त और भी बढ़ जाती है। पीयूष को पढ़ना, अपने भीतर को नज़दीक से देखना है। जाते-जाते यह ज़रूर पढ़ते जाइए, सोचने के लिए थोड़ा मसाला तो दिमाग में रह जाए…
मुँह से निकला वाह–वाह
वो शेर पढ़ा जो साहब ने
उस डेढ़ फ़ीट की आँत में ले के
ज़हर जो मैंने लिक्खा था…
वो दर्द में पटका परेशान सर
पटिया पे जो मारा था
वो भूख बिलखता किसी रात का
पहर जो मैंने लिक्खा था…
वो अजमल था या वो कसाब
कितनी ही लाशें छोड़ गया
वो किस वहशी भगवान खुदा का
कहर जो मैंने लिक्खा था…
शर्म करो और रहम करो
दिल्ली पेशावर बच्चों की
उन बिलख रही माँओं को रोक
ठहर जो मैंने लिक्खा था…
मैं वाक़िफ़ था इन गलियों से
इन मोड़ खड़े चौराहों से
फिर कैसा लगता अलग–थलग–सा
शहर जो मैंने लिक्खा था…
मैं शायर हूँ शेर शाम को
मुर्झा के दम तोड़ गया
जो खिला हुआ था ताज़ा दम
दोपहर जो मैंने लिक्खा था…
April 4, 2018 — magnon