नदियों को जोड़ने की परियोजना पर पुनर्विचार

नदियों को जोड़ने के लिए एक नई योजना प्रस्तावित की गई है, जिसका मकसद उत्तर, उत्तर-पूर्व और दक्षिण भारत की अलग-अलग नदियों को आपस में जोड़कर भारतीय उपमहाद्वीप में जल संसाधनों का प्रबंधन करना है. आपस में जुड़ी नदियों के इस नेटवर्क का हिस्सा बनाने के लिए कई विशाल जलाशयों, बड़े-बड़े बांध और बड़ी नहरों के नाम प्रस्तावित किए गए हैं. इस मेगा प्रोजेक्ट का मुख्य उद्देश्य उत्तर और पूर्वोत्तर भारत में बाढ़ को कम करना और बाढ़ के अतिरिक्त पानी को मध्य भारत, उत्तर-पश्चिम भारत और भारतीय उपमहाद्वीपों के ऐसे हिस्सों की ओर मोड़ना है, जहाँ पानी की भारी कमी और सूखा है.
Written by: Sakthi S

Translated by: Suchreet K

भारत में नदियों को आपस में जोड़ने की परियोजना बेहद महत्वपूर्ण है। इसे “राष्ट्रीय परियोजना” के रूप में संदर्भित किया जाता है जिसके कारण पर्यावरण और वनों की सफ़ाई जैसी कई मंजूरियां आसानी से पाई जा सकती हैं। लेकिन यह सिक्के का सिर्फ़ एक पहलू है। सिक्के के दूसरे विनाशकारी पहलू को अक्सर अनदेखा किया जाता है। यूँ तो, राजनेता इस परियोजना को पूरा करने और इसके माध्यम से राष्ट्र में समृद्धि लाने की बातें करते हैं, लेकिन कई प्रकृतिवादी और पर्यावरणविद इससे सहमत नहीं हैं और नदियों की परियोजना को लेकर सरकार के ख़िलाफ़ हैं। इस परियोजना में फ़ायदा होने के बजाय नुकसान की आशंका ज़्यादा है और इस नुकसान की भरपाई बाद में नहीं की जा सकती। जबकि, चंद फ़ायदों के लिए इस परियोजना को “राष्ट्रीय परियोजनाओं” के रूप में पेश किया जा रहा है।

नदियों की उत्पत्ति लाखों साल पहले हुई और इनका डिज़ाइन कुदरत ने खुद बनाया था। धरती की सारी नदियाँ समुद्र में नहीं मिलतीं, बल्कि कई नदियाँ कैस्पियन सागर और अरल सागर जैसी चारों तरफ़ ज़मीन से घिरी विशाल झीलों में भी बहती हैं। हालाँकि, इन झीलों के विशाल आकार की वजह से उन्हें समुद्र नाम दिया गया है, लेकिन वे वास्तव में प्राकृतिक झीलें हैं। प्रकृति दिखने में बहुत सरल दिखाई देती है, पर उसे समझना बहुत मुश्किल है। इसकी अपनी कई वजहें और स्पष्टीकरण हैं, जिनका उत्तर आज तक विज्ञान को भी नहीं मिला।

हर नदी का एक अलग पारिस्थितिकी तंत्र होता है। यह नदी की उत्पत्ति से लेकर इसके सागर में मिलने की पूरी प्रक्रिया के दौरान कई जीव-जंतुओं को पनपने में मदद करता है। नदियों को आपस में जोड़ने को, नहरें जोड़ने के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। नदियों से विशाल जीवन प्रणालियों को मदद मिलती है, जिन्हें इन मानव विकास की परियोजनाओं से अपूरणीय क्षति होगी। हमारे पास ऐसे कई उदाहरण हैं, जहां नदियों को मोड़ने से लोगों और पर्यावरण को भयानक नुकसान हुआ है।

1950 और 60 के दशक में पूर्व सोवियत संघ (यूएसएसआर) में अरल सागर में बहने वाली नदियों को सिंचाई और कृषि उद्देश्यों के लिए राष्ट्र के सूखे क्षेत्रों की ओर मोड़ दिया गया था। समय बीतने के साथ जब कई सालों बाद लगभग सभी नदियों का रुख मोड़ दिया गया, तो अरल सागर सूखने लगा। अरल सागर पृथ्वी पर चौथी सबसे बड़ी झील है और इसका सबसे बेहतर उदाहरण है कि कैसे मानव विकास की गतिविधियां समुद्र जितनी बड़ी झील को भी खत्म कर सकती हैं।

सन 1990 में अरल सागर अपने वास्तविक आकार का सिर्फ़ दस प्रतिशत ही रह गया था और बिना मछलियों के एक मृत सागर बन गया। इससे स्थानीय अर्थव्यवस्था में गिरावट आई और क्षेत्र में मछली पकड़ने और दूसरे काम करने वाले लोगों के पास करने के लिए कुछ नहीं बचा। इसके साथ ही, कपास उगाने के लिए रेगिस्तानी क्षेत्र की ओर मोड़े गए नदी के पानी से कुछ ज़्यादा फ़ायदा नहीं हुआ। शुरू के कुछ सालों में इससे थोड़ा-बहुत फ़ायदा हुआ क्योंकि रेगिस्तानी क्षेत्र में मोड़े गए पानी से वह क्षेत्र कपास का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया, लेकिन यह लंबे समय तक नहीं चला। कई सालों में मोड़ा गया लगभग 30-75% पानी, नहरों से पानी के रिसाव और प्राकृतिक वाष्पीकरण प्रक्रिया की वजह से बेकार चला गया। इससे यह परियोजना आपदा में तब्दील हो गई। बाद में यूनेस्को (UNESCO) ने अरल सागर की इस परियोजना को “पर्यावरणीय त्रासदी” और “ग्रह की सबसे खराब पर्यावरणीय आपदाओं में से एक” नाम दिया।

अब वे अपनी पिछली गलतियों से सबक सीख चुके हैं और कज़ाखस्तान और उज्बेकिस्तान मिलकर अरल सागर को फिर से जीवन देने के लिए काम कर रहे हैं। लेकिन दुर्भाग्य से अरल सागर क्षेत्र को अब “अरलकम रेगिस्तान” के नाम से जाना जाता है|

प्राकृतिक प्रणाली जटिल है और विकास के नाम पर किसी भी मानवीय हस्तक्षेप की वजह से विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं जिनमें फिर सुधार करने की गुंजाइश नहीं होगी। भारत में नहरों, बांधों और जलाशयों के निर्माण के लिए “नदियों के परस्पर जुड़ाव” को बहुत बड़े स्तर पर भूमि की ज़रूरत है। इसके लिए कई वन क्षेत्रों को हमेशा के लिए खत्म कर दिया जाएगा और वन्यजीवों के आवास के इलाके जलाशयों में डूब जाएंगे, जिसकी वजह से मानव और पशुओं के बीच संघर्ष बढ़ जाएगा। कई दूसरे देशों के विपरीत, भारत में प्रचुर प्राकृतिक सम्पदा है और यह दुनिया के 12 बड़े देशों में से एक है। इन देशों में संयुक्त राज्य अमेरिका, मैक्सिको, कोलंबिया, इक्वाडोर, पेरू, वेनेजुएला, ब्राजील, कांगो, दक्षिण अफ्रीका, मेडागास्कर, मलेशिया, इंडोनेशिया, फिलीपींस, पापुआ न्यू गिनी, चीन और ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं।

यह परियोजना देश में बड़ा सामाजिक-आर्थिक असंतुलन पैदा करेगी, क्योंकि लाखों गरीबों के पास जगह नहीं रहेगी और लाखों हेक्टेयर भूमि हमेशा के लिए पानी के नीचे चली जाएगी। प्रकृति हमारी विकासात्मक ज़रूरतों के अनुसार इस्तेमाल करने वाली कोई चीज़ नहीं है। यह एक खजाना और हमारी जीवन रेखा है, जिसपर हमारा सारा जीवन निर्भर है। हम मनुष्यों को कोई नैतिक अधिकार नहीं कि देश की लाखों प्रजातियों के आवास पर कब्जा करें और उसे नष्ट करें। यहाँ तक ​​कि एक छोटी चींटी या तितली से लेकर बड़े हाथी तक को भारत नामक की इस खूबसूरत भूमि पर रहने का पूरा अधिकार है। हमारे उद्भव से पहले, ये सभी पक्षी और जानवर समूचे देश में बिना डर के आज़ादी से घूम रहे थे। पर अब पिछले 100 सालों में चीजें बहुत बदल गई हैं। हमने उनके सभी प्राकृतिक आवासों पर कब्ज़ा कर लिया है और उन्हें वन्यजीव अभयारण्यों और राष्ट्रीय उद्यानों में शरण लेने के लिए मजबूर कर दिया है।

जैसा कि अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा, “अगर धरती से मधुमक्खियाँ गायब हो जाती हैं, तो मनुष्य के पास जीने के लिए सिर्फ़ चार साल बचेंगे”।
विकास के नाम पर धरती को नष्ट करना आत्महत्या करने के बराबर है।

References:

http://mowr.gov.in/schemes-projects-programmes/schemes/interlinking-rivers
https://www.indiatvnews.com/news/india-pm-modi-rs-5-5-lakh-crore-river-linking-project-ambitious-plan-deal-with-droughts-floods-400170
https://www.downtoearth.org.in/coverage/the-debate-on-interlinking-rivers-in-india-13496
https://timesofindia.indiatimes.com/india/govt-may-declare-inter-state-river-linking-projects-as-national-projects/articleshow/62544432.cms
https://www.jagranjosh.com/general-knowledge/advantages-and-disadvantages-of-interlinking-rivers-in-india-1506409679-1
https://www.geoecomar.ro/website/publicatii/Nr.19-2013/12_mehta_web_2013.pdf

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