पुस्तक समीक्षा : जूठन- झकझोर देने वाली आत्मकथा

कोई भी रचना अपने युग व समाज से जुड़कर ही प्रासंगिक बन पाती है. इसमें हाशिए पर डाल दिए गए लोगों की आवाज़ है. जिस वर्ग को हमेशा से दबाया और कुचला गया, उनका आक्रोश इसके माध्यम से बाहर निकला. भारतीय समाज जाति व्यवस्था का समर्थक रहा है, नतीजतन समाज के इस अंग को ‘अछूत’ मान लिया गया. शहरों में तो फिर भी ये हालात छिपे हुए हैं, पर गाँवों में आज भी यह प्रथा जारी है.
Written by: Mukta D

ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘जूठन’ हिंदी साहित्य की मौलिक आत्मकथाओं में से एक है. इस आत्मकथा को पढ़ते हुए दिलो-दिमाग में कितनी उलझन हुई, उसे बयान करना बड़ा ही मुश्किल है. यह आत्मकथा दलित चेतना के उद्देश्य से लिखी गई थी. पहली बार इसके कुछ हिस्सों को ग्रैजुएशन की अंग्रेज़ी किताब में पढ़ा था. उन चंद घटनाओं में जाति प्रथा और छुआछूत की कड़वाहट बहुत तेज़ थी.  

 

उस वक्त एक सीमित दायरे में ही मेरी समझ काम करती थी. मगर किताब पढ़ने के बाद कई दूसरे सामाजिक पहलुओं से परिचय होने में देर न लगी. तब अहसास हुआ कि इस किताब का अंग्रेज़ी अनुवाद देश के विश्वविद्यालयों की पाठ्यक्रम सामग्री का हिस्सा यूं ही नहीं बना था. आत्मकथा ‘जूठन’ के कुछ प्रसंग बिल्कुल भूलने वाले नहीं हैं. 

 

पहली बार लेखक का पिता स्कूल मास्टर से इसलिए लड़ जाता है कि शिक्षा और समानता का अधिकार मिलने के बावजूद सवर्ण बालकों के साथ उसके बच्चे को पढ़ने से रोक दिया जाता है. इसके बदले उससे पूरा-पूरा दिन स्कूल की साफ़-सफ़ाई करवाई जाती है.

 

कथा की भाषा देखने में उबड़-खाबड़ लग सकती है, पर बेहद चोट करने वाली और मारक है. एक बानगी देखिए:

 

”हेडमास्टर ने लपककर मेरी गर्दन दबोच ली. उनकी उंगलियों का दबाव मेरी गर्दन पर बढ़ रहा था. जैसे कोई भेड़िया बकरी के बच्चे को दबोचकर उठा लेता है. कक्षा से बाहर खींचकर उसने मुझे बरामदे में ला पटका और चीखकर बोले ”जा लगा पूरे मैदान में झाडू… नहीं तो… ”

 

यह भाषा, जीवन की वास्तविकता का चित्र ही तो है.

 

इसके अलावा वह प्रसंग शायद ही कोई भूला होगा, जब इलाके की प्रभावशाली जाति से जुड़े सुखदेव के घर बेटी की शादी के वक्त उस नन्हे बालक (लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि) की मां को अपमानित किया गया था. तब उनकी  मां ‘उस रात गोया दुर्गा’ बन गई थी और उसने त्यागी को ललकारा था. एक ‘शेरनी’ की तरह वे वहां से अपने बच्चों के साथ निकल गई थी. इस बगावत के बाद उनकी मां ने कभी उस शख्स के घर का रुख नहीं किया.

 

नन्हे बालक के मन पर अपने अनपढ़ मां-बाप की ये बगावत जो उस खोखले समाज में सफाई के पेशे में थे और उसकी वजह से ही ऐसा जीवन जीने के लिए अभिशप्त थे, एक मिसाल बन गए. नतीजतन बालक ओमप्रकाश के मन पर यह छाप छूट गई और उन घटनाओं ने उन्हें तमाम मुश्किलों से लड़ने का हौसला दिया.

 

शिक्षा पाना जिस जाति के लिए सपना था, उन्होंने वहीं अपमान सहकर शिक्षा पाई. दलित समाज की निगाह में भारतीय समाज की व्यवस्था दोषी है. कहीं-न-कहीं समाज में फैले इन गलत संस्कारों ने शिक्षित-अशिक्षित सभी को बाँटा. आर्थिक स्थिति का भेद हमें इतना छिन्न-भिन्न नहीं करता जितना जातिगत भेद. जैसे ‘सलाम की प्रथा’ जातिगत हीनता का बोध भीतर तक रोप देने की ही प्रथा है. शादी के बाद दूल्हा-दूल्हन को सभी बड़े घरों में सामान माँगने के लिए जाना होता था. निम्न जातियों में यह आज भी प्रचलित है. इस प्रथा से ‘जातीय अहम की पराकाष्ठा’ परिलक्षित होती है.

 

समाज में ‘जूठन’ की प्रासंगिकता 

कोई भी रचना अपने युग व समाज से जुड़कर ही प्रासंगिक बन पाती है. इसमें हाशिए पर डाल दिए गए लोगों की आवाज़ है. जिस वर्ग को हमेशा से दबाया और कुचला गया, उनका आक्रोश इसके माध्यम से बाहर निकला. भारतीय समाज जाति व्यवस्था का समर्थक रहा है, नतीजतन समाज के इस अंग को ‘अछूत’ मान लिया गया. शहरों में तो फिर भी ये हालात छिपे हुए हैं, पर गाँवों में आज भी यह प्रथा जारी है.

डा. अंबेडकर ने दलितों को अधिकार तो दिलवाए, मगर उनके जीवन में आज भी कोई खास बदलाव नहीं आया है. यह बात हमें  सोचने के लिए मजबूर करती है कि सभी ने कहीं न कहीं सामाजिक व्यवस्था के इस कड़वे अनुभव से साक्षात्कार किया है. हालांकि, आत्मकथा में आक्रोश के स्वर हर जगह मिलते हैं, पर यह भी सच है कि बार-बार किया गया अमानवीय व्यवहार ही पीड़ितों और दलितों की आवाज़ बना, इसके नाते यह रचना हमेशा प्रसांगिक है. ज्योतिबा फुले ने कहा था- गुलामी की यातना को जो सहता है, वही जानता है और जो जानता है, वही पूरा सच कह सकता है. सचमुच जलने का अनुभव राख ही जानती है और कोई नहीं. 

 

लेखिका – मुक्ता दत्त

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